दस्तख़त | लेखक : रीतेय
सुबह का समय था। गोपाल बाबू रोज की तरह तैयार हो रहे थे ताकि सुबह की साढ़े सात वाली ट्रेन पकड़ सके। ऑफ़िस क़रीब ३ घंटे की दूरी पर थी अतः सुबह की ट्रेन छूट जाए तो ऑफ़िस नहीं जाने के अलावा कोई और उपाय भी नहीं था। राज्य सरकार कि किसी हाई स्कूल में भौतिकी और गणित पढ़ते थे गोपाल बाबू और हम ९ से ५ वालों के तरह उनके पास वर्क फ़्रम होम जैसे सुविधाएँ नहीं थी। यूँ तो उनका शिक्षक बनाना अपने आपमें एक लम्बी कहानी है पर आज जिसकी ज़िक्र होनी है वो कहानी कुछ और है।
सुबह के ७ बज चुके हैं , गोपाल बाबू अपना झोला उठा कर स्टेशन की ओर निकलने ही वाले हैं। इसी बीच उनकी माँ ने आवाज़ लगायी।
अरे गोपाल, एक बात पूछनी थी।
कहो माँ!
-अच्छा ये बताओ, ये बैंक क्या होता है?
-माँ, बैंक वही होता है जहां लोग पैसा जमा करते हैं।
-अच्छा, तो वह हर कोई पैसा जमा करा सकता है?
हाँ, हर कोई (गोपाल बाबू ने बात को जल्दी ख़त्म करने की सोच कर सीधा सा जवाब दिया और आँगन से बाहर आ गये)
इससे पहले की माँ कुछ और पूछती, समय की नज़ाकत को ज़हन में रखते हुए गोपाल बाबू स्टेशन की ओर चल पड़े। स्टेशन करीब १० मिनट की दूरी पर था। गोपाल बाबू स्टेशन की ओर चल रहे थे और साथ ही साथ माँ की बात उनके मन में। गोपाल बाबू यह बात बख़ूबी जानते हैं कि उनकी माँ जिज्ञासु हैं और उन्होंने किसी को बोलते सुना होगा बैंक के बारे में।
सोचते सोचते गोपाल बाबू स्टेशन पहुंचे, गाड़ी पकड़ी और चले गये । वो बात स्टेशन पर रह गयी, शायद इंतज़ार में कि जब गोपाल बाबू वापस लौटेंगे तो बात उनके साथ वापस घर तक जाएगी।
इधर माँ ने गोपाल बाबू की बात, की बैंक में कोई भी पैसा जमा करवा सकता है, को सोचती रही। अपना संदूक खोला, सारे पैसे निकाले और बरामदे के एक किनारे पर रख दिया। वो नहीं जानती थीं कि किस सिक्के या फिर नोट की क्या कीमत है। जो सिक्के या नोट एक जैसे दिखे, एक साथ रख दिया।
दिन निकल गया। इधर माँ अपने हिस्से की काम काज निबटाती रहीं। उधर गोपाल बाबू अलग-अलग कक्षाओं में गणित और भौतिकी पढ़ाते रहे। माँ की बात स्टेशन पर इंतज़ार करती रही और पैसे अपने गिने जाने के इंतज़ार में बरामदे में पड़ा रहा।
शाम की बत्ती जलाई जा चुकी थी। ट्रेन की सीटी बजी। माँ अपने बाकी के बचे जिज्ञासाओं के साथ दरवाजे के सामने वाले मचान पर इंतज़ार कर रही थी। गोपाल बाबू जैसे ही लौटे और कपड़े बदल कर माचान की तक आए, माँ की बाकी बची जिज्ञासाएं भी एक एक कर सामने आने लगी और माँ बेटे का वार्तालाप चलता रहा।
माँ ने कहा, गोपाल मुझे भी अपने पैसे बैंक में जमा कराने हैं।
गोपाल बाबू थोड़े हैरान हुए और पूछ बैठे की माँ आपके पास तो संदूक है ही। उसी में रखा करो आप।
नहीं नहीं कल वो जो खेत में काम करने आयी थी, बता रही थी की उसके मुहल्ले में परसों रात चोरी हो गई। क्या पता कल कोई मेरा संदूक ही उठा ले जाए?
गोपाल बाबू माँ की बात समझ तो गये थे पर कहीं न कहीं बात टालने की मुद्रा में ही थे।
उन्होंने कहा, माँ ऐसा करो कि आप पैसा मुझे दे दो और मैं अपने खाते में जमा करवा दूंगा।
नहीं नहीं, मुझे अपने खाते में करवाना है।
माँ पर बैंक खाते के लिए आपको अपना दस्तखत करना होगा या फिर अंगूठा का निशान लगाना होगा? और अंगूठा तो आप लगाओगी नहीं।
गोपाल बाबू जानते थे कि माँ अंगूठे का निशान नहीं लगाएंगी, क्योंकि सालों पहले, गोपाल बाबू के पिता के देहावसान के उपरांत, जब गोपाल बाबू ५ साल के भी नहीं थे, किसी ने धोखे से माँ का अंगूठा निशान लेकर सारी ज़ायदाद अपने नाम कर लिया था। और जब ये बात बाद में उन्हें पता चली और उन्हें बेघर होना पड़ा, तो माँ ने ये कसम खायी थी कि ज़िंदगी में कभी अंगूठे का निशान नहीं लगाएंगी।
माँ ने कुछ देर सोचा और कहा कि मैं दस्तखत करूंगी और दस्तखत करके ही जमा कराऊंगी अपने पैसे।
-लेकिन माँ, आपको तो आता ही नहीं है दस्तखत करना?
-तो सीखूंगी, क्यों ये सीख नहीं सकती मैं?
-हाँ, सीख तो सकती हो आप लेकिन कैसे, ये सोच रहा हूं।
-स्कूल में सबको जोड़-घटाव सिखाते हो, मुझे दस्तखत नहीं सिखा पाओगे? ये सवाल उस औरत की थी जिसकी जीवन संघर्षों पर किताबें लिखी जा सकती है।
खायर, गोपाल बाबू ने कहा..
-हाँ माँ, कल सिखाता हूं आपको।
गोपाल बाबू समझ चुके थे कि माँ ने निश्चय कर लिया है तो बिना बैंक में पैसे जमा कराए नहीं मानेगी।
और अगर पूरी वर्णमाला सिखाने लगे तो काफ़ी वक्त भी लगेगा और माँ के नाम की सारे अक्षर वैसे भी वर्णमाला के आख़िरी वाले हैं।
अगली सुबह आफिस जाने के पहले गोपाल बाबू ने कोई पूरानी कापी के एक खाली पन्ने पर पहली लाइन में माँ का नाम लिखा और माँ से कहा की आप ये देख कर बाकी की लाइनों में लिखो।
मैं शाम को नयी कापी ले आऊंगा। आप एक बार हस्ताक्षर सीख जाओगी तो हम बैंक चलेंगे और आपके पैसे जमा करा आएंगे।
दिन फिर से गुज़रा.. हमेशा की तरह आज भी माँ के पास काम बहुत थे लेकिन उन्होंने सिर्फ वही किया जो सबसे ज्यादा जरूरी था।
शनिवार की वज़ह से गोपाल बाबू शाम धूंधलाने के पहले घर लौट आए थे। जैसे ही वापस आकर गोपाल बाबू ने नयी कापी और क़लम माँ को पकड़ाया.. माँ ने पहला पन्ना खोला और एक संतुष्टि भरे एहसास के साथ अपना दस्तखत कर दिया।
गोपाल बाबू अचंभित थे क्योंकि पूरानी कापी में सिर्फ़ एक ही पन्ना खाली था।
माँ ने बेटे की हतप्रभता को महसूस किया और खींचकर आंगन ले गयी। पूरा आंगन एक कापी की तरह खुला हुआ और न जाने कितनी बार उस पर माँ ने पूरानी कापी में देखते हुए लिखा था अपना नाम।
उस शाम गोपाल बाबू ने ढलते सूरज के साथ देखा था ख़्वहिश और समर्पण की एक नयी सुबह।
-रीतेय
लेखक के बारे मे
एक शौक़िया लेखक जो अपने ख़ाली समय में पन्नों का ख़ालीपन दूर करने की थोड़ी बहुत कोशिश करता रहता है। लिखने का शौक़ कॉलेज के दिनों में जगा और तबसे अपनी दुनिया से अलग एक दुनिया बनाने की जद्दोजहद जारी है। कविता लिखने में ज़्यादा रुचि लेते हैं परंतु कहानियाँ पढ़ने-लिखने से कोई बैर भी नहीं है।
पसंदीदा पुस्तकों में दिनकर की ‘रश्मिररथी’ और ‘कुरुक्षेत्र’, श्रीलाल शुक्ल की ‘राग-दरबारी’ शामिल है।
ख़ुद कॉलेज के दिनों में दो कविता संग्रह लिखने की जुर्रत की और दोनों किताबें ‘आत्म-कृति’ और ‘अधूरा आसमान’ के नाम से प्रकाशित भी हुई।
आजकल अपने जीवन-यापन के लिए किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत हैं और समय समय पर Facebook, Instagram और YouTube के माध्यम से कुछ लिखते और सुनाते रहते हैं। #reetey के माध्यम से इन्हें इन सभी प्लैट्फ़ॉर्म पर आसानी से ढूँढा जा सकता है।
Follow Writer on Instagram : @Reetey