भूख बनाम इश्तिहार
वो खूबसूरत थी
किसी रंगीन पत्रिका की तरह
पर उसकी आँखों में एक भूख थी
भूख, जो खूबसूरती के बावजूद
देह को हाथ फैलाने पर मजबूर कर दें
वह किसी गवांर आदमी के
साथ शहर आयी होगी
उसे शहर में जीने का सलीका नहीं आता
इसलिए उसने चुना, चुपचाप हाथ फैलाना
मेट्रो टनल की सीढ़ियों पर
सरकारी इमारतों के नीचे
घनी आबादी वाली बस्तियों में
राजधानी के चौराहों पर
अंत में, उसे जब भरपेट
अनाज नहीं मिला होगा
तो उसने चुना,
अपनी देह को फैलाना
शहर की संकरी गली के
किसी कोठे में
उछलते शरीर के नीचे
उसने चुना मर्द जात का
पेट भरकर
अपनी भूख मिटाना
उसका जुर्म बस इतना था
कि उसने नहीं पढ़ा
अखबार और रंगीन पत्रिकाओं में
बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ के
सरकारी इश्तिहार।
क्योंकि वो किसी गंवार आदमी
के साथ शहर आयी थी ।
– मंयक असवाल
लोकतंत्र से उम्मीद
एक देश की
संसद को कीचड़ के
बीचों बीच होना चाहिए
ताकि अपने हर अभिभाषण के बाद
संसद से निकलते ही एक राजनेता को
पुल बनाना याद रहे।
एक लोकतांत्रिक कविता को
गाँव, मोहल्ले और शहर के
हर चौराहे पर होना चाहिए
ताकि जनता के बीच
आजादी और तानाशाही का
अंतर स्पष्ट रहें।
एक लेखक को
प्रतिपक्ष की कविता लिखने की
समझ होनी चाहिए
ताकि किताबों के बीच में सिमटकर
सिर्फ जानवर सा चुप
बस मंचों पर ठहाके लगाते हुए
वो मंचीय कवि बनकर
न रह जाए।
एक नागरिक को
अपने हक की आवाज का
बोध होना चाहिए
ताकि वो समाज में
सभ्य नागरिक बनने का
अभिनय करते हुए
सिर्फ मौन जीवन बिताकर न मरें।
– मंयक असवाल
रोटियां डाउनलोड नहीं हो सकती ।
वक्त आ गया है
जब कविताओं को
इस देश की संसद की चौखट पर
किसानों से साथ धरना देना चाहिए ।
ताकि इस कागजी जम्हूरियत में
बडे़ हुक्मरानों के कानों तक
वो हर एक कविता
जो अन्नदाता के हक में लिखी गई,
इतना शोर पैदा कर दे
अगली दफा नया अध्यादेश लाने से पहले
हर एक नेता को अपने भाषणों के साथ
वो एक कविता याद आए।
फिर वो निर्णय करें
कितनी असमानता है
उनके वक्तव्यों और किसान की मांगों में।
क्योंकि
शायद वो भूल गए हैं
कौर भर अनाज की किमत,
संग में ये भी
कुर्सियों पर कंधा टिकाए
राजधानी में बैठकर
सिर्फ हाथ में मोबाइल लिए
रोटियां गूगल से
डाउनलोड नहीं हो सकती!
– मंयक असवाल
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Well written